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30 सितंबर की दोपहर जब शहर के लोग या तो लोग अपने घरों को पहुँच चुके थे या घरों को पहुँचने की जल्दी में थे। बच्चों की छुट्टी हाफ-डे के कारण सुबह दस बजे ही हो गई थी। घरों में हर शख्स टीवी से चिपका हुआ था। लोग एक-एक पल की जानकारी रखना चाहते थे। बच्चे हैरान थे, बड़े उनको कार्टून नहीं देखने दे रहे थे। बड़ों के हटने के इंतज़ार में आखिर बच्चे भी मजबूरन वही न्यूज़ चैनल देखने बैठ गए जो बड़े देख रहे थे। धीरे-धीरे बात कुछ-कुछ उनकी भी समझ में आने लगी। जिसकी जितनी समझ थी वोह उतनी बात समझ रहा था। परंतु मामला कुछ गंभीर और खतरनाक है और बात कुछ हिंदू और मुसलमान की है, यह बात तो मेरे दोस्त के सात साल के बेटे उत्कर्ष की भी समझ में आ चुकी थी। थोड़ी देर और टीवी देखते-देखते उत्कर्ष अचानक अपनी माँ से चिपट कर रोने लगा। माँ घबरा गई, ज़रा सा पुचकारा तो उत्कर्ष हिचकियों के बीच माँ से ज़िद करने लगा की ‘मम्मी खान अंकल को अपने घर मेन छुपा लो, वोह तो अछे हैं, मेरे और दीदी के लिए चोकलेट भी लातें हैं। मम्मी प्लीज खान अंकल को अपने घर में छुपालों।’
बेटे की बात सुन कर माँ ठहाका मार कर हंस पड़ी, तो बेटा और कातर हो उठा, अपनी माँ पर मासूम बेटे ने खराब और गंदी होने तक के आरोप लगा डाले। आखि माँ ने हँसते हुए मुझे फोन मिला दिया, और पूरा किस्सा सुनाने के बाद छोटे उत्कर्ष की मुझ से भी बात करा दी। मैंने उसको तसल्ली दी और शाम को आने का वादा किया तब कहीं जाकर उसके मासूम मन को करार आया। फोन रखते समये भी उसकी माँ हंस रही थी, पर मुझे बच्चे की वेदना कहीं भीतर तक आहत कर गई थी। शाम को दफ्तर से लौटने पर पर भी मैं मासूम उत्कर्ष से मिलने की हिम्मत नहीं जुटा सका और सीधे घर लौट आया।
तफहीम खान
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