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6 दिसंबर से 30 सितंबर तक का सफर…..

Tafhim_Khan
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6 दिसंबर 1992 से 30 सितंबर 2010 तक के 17 वर्ष 9 माह 24 दिन के एतिहासिक सफर में हिन्दुस्तान ने जिस मंज़िल को पाया है वह वास्तव में प्रशंसनीय है। इस अनोखी और अभूतपूर्व यात्रा के दौरान मैं बूढ़ा और मेरा बेटा जवान हो गया। हिन्दुस्तान के इस मुकाम तक पहुँचने में मेरी तीन पीढियों की कुर्बानियाँ शामिल हैं, इसके बावजूद मुझे हिन्दुस्तान की इस एतिहासिक मंज़िल पर नाज़ है। मुझे लगता है कि शायद इसीलिए इस सफरनामे को लिखने का ज़िम्मा और हक मेरा है।
उस मनहूस 6 दिसंबर को मैं दंगों कि धर्मनगरी कहे जाने वाले शहर अलीगढ़ में था। एक दवा कंपनी में एरिया मैनेजर के पद पर मेरी पोस्टिंग मेरठ में थी। मेरे पास मेरठ के अतिरिक्त अलीगढ़, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर और बागपत ज़िले थे। चूंकि हाल में ही मेरी पदोन्नति अलीगढ़ से हुई थी, इसलिए परिवार अलीगढ़ ही रखा था। परिवार के नाम पर पत्नी और दो साल का एक बेटा जिबरान, जिसे पूरा मोहल्ला जिब्बू पुकारता था। मोहल्ले का ज़िक्र इस लिए कर दिया क्योंकि अपने शहर फ़र्रुखाबाद से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर दूर यह मोहल्ला ही हमारा खानदान था। जिसमें हर रिश्ता मौजूद था।
फिजा बहुत खराब थी। मैं भी 5 दिसंबर को ही घर आ गया था। दिसंबर के वेतन का चेक आया नहीं था, बचत के बजट में जितनी सिगरेट और राशन ले सका, खरीद लिया था। रात से ही लोग टीवी चैनलों से चिपके हुए थे। खुदा-खुदा कर के रात कटी। सुबह होते होते होते सब कुछ साफ होने लगा। सूरज के सफर के साथ गुंबदों के गिरने के मंज़र हक़ीक़त बनने लगे। दोपहर तक जय श्री राम और अल्लाहो-अकबर की जवाबी नारे बाज़ी ज़ोर पकड़ गई। शाम के सुरमई होने के साथ ही गोलियों और बमों के धमाके गूँजने लगे। मैं सिविल लाइन के जिस पॉश इलाक़े सर-सैयद नगर में रहता था वोह मेडिकल कालेज के रास्ते पर था, सो थोड़ी ही देर में खून से लथपत घायलों और चीखते चिल्लाते उनके परिजनों से भरे टेम्पो गुज़रने लगे। पूरे शहर में कर्फ्यू लग गया। एक माह तक चले इस कर्फ्यू के दौरान हम अख़बार तक पुलिसवालों से ब्लैक में खरीदते थे।
खैर अयोध्या मे जो हुआ सो हुआ, पर उसके बाद मेरे लिए मेरठ और अलीगढ़, के कस्बों में काम करना मुश्किल हो गया। मेरे अधीन हिन्दू दवा प्रतिनिधियों तक ने अनिष्ट की आशंका के चलते साथ जाने से इंकार कर दिया, शायद उन्हों ने यह सब मेरी सुरक्षा की दृष्टि से किया होगा। मैंने अकेले ही निकालने की ठानी तो स्टाकिस्ट भी घबराते थे। एक बार तो मैं अलीगढ़ में अपने एक पुराने स्टाकिस्ट अनिल की दुकान पर बैठा था। अचानक भगदड़ मच गई। अनिल ने मुझे दुकान के भीतर बंद कर बाहर से ताला जड़ दिया और खुद बाहर बैठ गया। करीब एक घंटे बाद पुलिस के आने पर दंगाई भागे तो अनिल ने शटर खोला। इस अफरातफरी में भी अनिल न जाने कहाँ से मेरे लिए एक थर्मस में चाय की जुगाड़ कर लाया था। उसके चेहरे पर एक खिसियानी सी मुस्कुराहट थी। खिसियाहट में उसकी शर्मिंदगी और मुस्कुराहट में मुझे सुरक्षा का भरोसा दिलाने की कोशिश साफ नज़र आ रही थी।
खैर एक दिन हालात और कंपनी के दबाओ के चलते मैं नौकरी छोड़ कर फ़र्रुखाबाद लौट आया। इसी के साथ मेरी सीनियारिटी और अनुभव शून्य हो गया। एक कैरियर का अंत हो गया। मेरे पिता का सबसे बड़ा और एक मात्र कमाऊ बेटा बेरोज़गार हो गया। मेरी पत्नी और बेटे की ज़रूरतें रातों-रात पुनर्परिभाषित हो गईं। और सबसे बड़ा नुकसान जो हुआ वोह यह के, मेरे बेटे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ में जो अवसर थे उन पर विराम लग गया। मेरी तीन पीढ़ीयौं की कुरबानी एक साथ हो गई।
सत्रह साल बाद एक बार फिर हिन्दुस्तान इतिहास के उसी दोराहे पर खड़ा नज़र आया। परंतु इस बार 30 सितंबर की शाम को न तो मुझे अख़बार के अपने दफ्तर से रात को 11 बजे घर लौटते समय कोई डर लगा और न ही मेरे बेटे को दूसरे दिन कालेज जाने में कोई घबराहट हुई। उसने तो 30 सितंबर को टीवी भी नहीं देखा, वोह दिन भर दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता रहा। जैसे वोह जानता था के कुछ होना ही नहीं है। कुछ हो ही नहीं सकता। उसका अंदाज़ा हम सब से अधिक सटीक निकला। दिल्ली और लखनऊ में बैठे नेता और अफसर और अच्छी स्टोरी की आस में अख़बार के दफ़्तरों में बैठे रणनीतिज्ञ अपना सा मुँह ले कर रह गए।
मुझे अपने हिन्दुस्तान के इस एतिहासिक सफर पर नाज़ है। इस बात की भी खुशी है कि मैं अगली पीढ़ी को इस मुल्क में सुरक्षित छोड़ कर मर सकता हूँ।
हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद…………………..

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